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सच्चा प्रेम


एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री थी, परी के समान। वह रास्ता चले हुए किसी कारण से खड़ी हो गयी। उसने देखा कि एक आदमी उसकी तरफ चला आ रहा है। जब पास आया तो उस स्त्री पर वह ऐसा मोहित हुआ कि उसे तन-मन की सुधि तक न रही। जब जरा होश हुआ तो उस सत्री की तरफ देखने लगा और फिर ऐसा आपे से बाहर हुआ कि उस सुन्दर रूप को अपने बाहु-पाश में बन्दी बनाने को तैयार हो गया। इस इरादे से वह आगे बढ़ा ही था कि स्त्री तुरन्त पीछे हट गयी और कहने लगी, "क्या बात है, जो इस तरह बढ़े चले आ रहे हो और सभ्यता की सीमा से बाहर जा रहे हो?"

पुरुष ने जवाब दिया, "यह सब तेरे रूप का जादू है। तेरे हाव-भावो ने तीर बरसाये हैं। क्या कहूं, तेरे सौन्दर्य ने मेरे हृदय को छीन लिया है। और जब अपने ऊपर तेरा अधिकार होते देखा है तो मुझे भी यह साहस हो गया कि अपनी रक्षा के लिए आगे बढ़कर वार करना चाहिए। अब तो मैं तेरा ही इच्छुक हूं। जबतक तुझे नहीं पा लूंगा, शान्ति नहीं मि सकती।"



वह स्त्री बोली, "मेरे पीछे मेरी एक दासी है। मुझसे भी अधिक सुन्दरी है। जब तू उसे देखेगा तो बड़ा खुश होगा। देख यह सामने से चली आ रही है।"

पुरुष ने पीछे मुड़कर देखा। दासी का कहीं पता न चला। जब देखते-देखते थक गया तो उस सुन्दरी ने बड़े जोर से एक तमाचा मारा और बोली, "ऐ कपटी! तुमको शर्म नहीं आती कि मेरे प्रेम का दावा करता हुआ भी दूसरे की तलाश करता है? तुझको प्रेमी बनने का अधिकार नहीं। तू प्रेमी नहीं, बल्कि धोखेबाज है।"

[हे आत्मन्! तू केवल परमात्मा का प्रेमी बन और माया-रूपी दुनिया कितनी सुन्दर हो, उससे मन न लगा, यहां तक कि सिवा परमात्मा के किसी से भी इच्छा न कर। न किसी के स्पर्श करने की कामना कर। किसी की गन्ध तक मल ले और न उसके अतिरिक्त किसी का ध्यान कर। तू भ्रम-जाल में फंसेगा तो उस परमात्मा के हाथों हानि उठायेगा] 

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