परमात्मा की पहली प्रतीति चिंतन से मिलती है,
पहला आभास। लेकिन अनुभव नहीं, सिर्फ आभास। सिर्फ इस
बात की झलक कि वह है। इस झलक पर ही जो रुक जाएगा, वह
भी परमात्मा को नहीं पहुंच पाया। उसने भी अनुभव
नहीं किया। यह झलक जरूरी है, पर काफी नहीं है। चिंतन के
बाद, मन में बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ
परमात्मा।
यह जो पहली झलक मिले, फिर इसको ध्यान में रूपातरित
करना है। यह जो पहली झलक अहा, यह सदा स्मरण रहने लगे,
यह ध्यान बन जाए; इसे भूला ही न जा सके।
उठते—बैठते, सोते—जागते वह झलक सम्हालकर रखनी है भीतर।
जैसे मा अपने बच्चे को गर्भ में सम्हालकर रखती है।
चलती भी है ते। सम्हलकर, काम भी करती है तो सम्हलकर।
एक स्मरण बना ही रहता है कि वह गर्भवती है। एक
छोटा जीवन अंकुरित हो रहा है, उसे कोई चोट न पहुंच जाए।
ठीक जिसे झलक मिल गई, उस झलक को वह अपने भीतर
सम्हालकर चलता है।
कबीर ने कहा है, जैसे गांव की वधुएं नदी से पानी भरकर सिर
पर मटकियां रखकर गांव की तरफ लौटती हैं, तब वे गपशप
भी करती हैं, बातचीत भी करती हैं, हंसती भी हैं, राह से
चलती भी हैं, पर उनका ध्यान सदा गगरी में लगा रहता है; वह
गिरती नहीं। सब चलता रहता है—चलना, बात करना, हंसना,
गीत गाना—लेकिन ध्यान गगरी में लगा रहता है। कोई भीतर
की स्मृति ग्यारी को सम्हाले रखती है। इसको कबीर ने
सुरति कहा है, नानक ने भी सुरति कहा है।
सुरति बुद्ध के वचन स्मृति का बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्धं ने
कहा था—माइंडफुलनेस, स्मृति; होश बना रहे निरंतर एक तत्व
का। सब कुछ भूल जाए वह न भूले। उसी को कबीर, नानक, दादू
ने सुरति कहा है। सुरति बनी रहे, जगी रहे। ओशो
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