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मोहब्बत के पैगम्बर - हजरत उमर

रात का समय था। सारा मदीना शहर सोया पड़ा था। उसी समय हजरत उमर शहर से बाहर निकले। तीन मील जाने के बाद एक औरत दिखाई दी। वह कुछ पका रही थी। पास ही दो तीन बच्चे रो रहे थे। हजरत उमर ने उस औरत से पूछा, “ये बच्चे क्यों रो रहे है?” औरत ने जबाब दिया, “भूखे हैं। कई दिन से खाना नहीं मिला। आज भी कुछ नहीं है। खाली हांडी में पानी डाल कर पका रही हूं।
हजरत ने पूछा, “ऐसा क्यों कर रही हो?”
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जीवन नहीं बदल सकते

अपना जीवन न तो किसी को दिया जा सकता है और ना ही किसी से उसका जीवन उधार लिया जा सकता है। जिन्दगी में प्रेम का, खुशी, का सफलता या असफलता का निर्माण आपको ही करना होता है इसे किसी और से नहीं पाया जा सकता है। बात दूसरे महायुद्ध के समय की है। इस युद्ध में मरणान्नसन सैनिकों से भरी हुई उस खाई में दो दोस्तों के बीच की यह अद्भुत बातचीत हुई थी। जिनमें से एक बिल्कुल मौत के दरवाजे पर खड़ा है। वह जानता है कि वह मरने वाला है और उसकी मौत कभी भी हो सकती है। इस स्थिति में वह अपने पास ही पड़े घायल दोस्त से बोलता है। दोस्त में जानता हूं तुम्हारा जीवन अच्छा नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम है। तुमने अपने जीवन में कई अक्षम्य भूलें की हैं। उनकी काली छाया हमेशा तुम्हें घेरे रही। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। तुमने जो किया वो सब जानते हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के बीच कुछ भी नहीं है। तुम एक काम करो तुम मेरा नाम ले लो मेरा सैनिक नंबर भी और मेरा जीवन भी और मैं तुम्हारा जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हंू। मैं तुम्हारे अपराधों और कालीमाओं को अपने साथ ले जाता हूं। ऐसा कहते हुए वह मर जाता है। प्रेम से ये उसके कहे गए शब्द कितने प्यारे हैं। काश ऐसा हो सकता, नाम और जीवन बदला जा सकता लेकिन ये असंभव है। जीवन कोई किसी से नहीं बदल सकता न तो कोई किसी के स्थान पर जी सकता है। ना किसी की जगह मरा जा सकता है। जीवन ऐसा ही है आप चाह कर भी किसी के पाप पुण्य नहीं ले सकते और ना ही दे सकते हैं। जीवन कोई वस्तु नहीं जिसे किसी से ये बदला जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना है।
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आपका एटिट्युड क्या है?

एक बार की बात है एक जगह मंदिर बन रहा था और एक राहगीर वहां से गुजर रहा था। उसने वहां पत्थर तोड़ते हुए एक मजदूर से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो और उस पत्थर तोड़ते हुए आदमी ने गुस्से में आकर कहा देखते नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं आंखें हैं कि नहीं? वह आदमी आगे गया उसने दूसरे मजदूर से पूछा कि मेरे दोस्त क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से छैनी हथोड़ी से पत्थर तोड़ते हुए कहा रोटी कमा रहा हूं बच्चों के लिए बेटे के लिए पत्नी के लिए । उसने फिर अपने पत्थर तोडऩे शुरु कर दिए । अब वह आदमी थोड़ा आगे गया तो देखा कि मंदिर के पास काम करता हुआ एक मजदूर काम करता हुआ गुनगुना रहा था। उस आदमी ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने फिर पत्थर तोड़ते उस मजदूर से पूछा क्या कर रहे हो मित्र। उस आदमी ने कहा भगवान का मंदिर बना रहा हूं । और इतना कहकर उसने फिर गाना शुरु कर दिया । ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं पत्थर तोडऩे का पर तीनों का अपने काम के प्रति दृष्टीकोण अलग -अलग है। तीसरा मजदूर अपने काम का उत्सव मना रहा है। तीनों एक ही काम कर रहें हैं लेकिन तीसरा मजदूर अपने काम को पूजा की तरह कर रहा है इसीलिए खुश है। जिन्दगी में कम ही लोग हैं जो अपने काम से प्यार करते हैं और जो करते हैं वे ही असली आनन्द के साथ सफलता को प्राप्त करते हैं। दूनिया में हर आदमी सुखी बन सकता है अगर वो अपना काम समर्पण के साथ करता है। हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा एटिटयुड क्या है, वह सवाल है। और जब इस एटिटयुड का इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है।
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असली ख़ुशी

गौरव अपने दोस्त सोमू के घर गया "यार सोमू तुम्हारे घर में डीवी डी नहीं हे ओर तो ओर टी वी भी नहीं हे । तुम शाम को बोर नहीं होते । हम तो अपने घर में ख़ूब फिल्मे देखते हैं ।

"नहीं शाम को जब पापा घर आते हेतो हम कुछ देर पार्क में फ़ुटबाल खेलते हे फिर घर आकर खाना खा कर होमवर्क करते हे सोते समय कहानी सुनते हैं । सोमू ने सहज अंदाज़ में कहा।गौरव को अपना घर याद आ रहा था । पापा शराब पी देर रात को घर आते ओर मम्मी पर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते । कभी-कभी तो हाथ भी उठा देते थे । गौरव इन सब से अनजान बना टी.वी. के चैनल बदलता रहता । अपने आंसुओं को आँखों में समेटे कभी-कभी वह भूखा ही सो जाता ।

आज उसे असली ख़ुशी के मायने समझ आ गए थे ।
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भाग्य से ज्यादा और समय से पहले, न किसी को मिला है और न मिलेगा......

भाग्य से ज्यादा और समय से पहले, न किसी को मिला है
और न मिलेगा......
एक सेठ जी थे जिनके पास काफी दौलत थी और सेठ जी ने
उस धन से निर्धनों की सहायता की, अनाथ आश्रम एवं
धर्मशाला आदि बनवाये।
इस दानशीलता के कारण सेठ जी की नगर में काफी
ख्याति थी।
सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी एक बड़े घर में की थी परन्तु
बेटी के भाग्य में सुख न होने के कारण उसका पति जुआरी,
शराबी, सट्टेबाज निकल गया जिससे सब धन समाप्त हो
गया।
बेटी की यह हालत देखकर सेठानी जी रोज सेठ जी से
कहती कि आप दुनिया की मदद करते हो मगर अपनी बेटी
परेशानी में होते हुए उसकी मदद क्यों नहीं करते हो।
सेठ जी कहते कि भाग्यवान जब तक बेटी- दामाद का
भाग्य उदय नहीं होगा तब तक मैं उनकी कीतनी भी मदद
भी करूं तो भी कोई फायदा नहीं।
जब उनका भाग्य उदय होगा तो अपने आप सब मदद करने को
तैयार हो जायेंगे।
परन्तु मां तो मां होती है, बेटी परेशानी में हो तो मां को
कैसे चैन आयेगा।
इसी सोच-विचार में सेठानी रहती थी कि किस तरह बेटी
की आर्थिक मदद करूं।
एक दिन सेठ जी घर से बाहर गये थे कि तभी उनका दामाद
घर आ गया।
सास ने दामाद का आदर-सत्कार किया और बेटी की मदद
करने का विचार उसके मन में आया कि क्यों न मोतीचूर के
लड्डूओं में अर्शफिया रख दी जाये जिससे बेटी की मदद भी
हो जायेगी और दामाद को पता भी नही चलेगा।
यह सोचकर सास ने लड्डूओ के बीच में अर्शफिया दबा कर
रख दी और दामाद को टीका लगा कर विदा करते समय
पांच किलों शुद्ध देशी घी के लड्डू जिनमे अर्शफिया थी
वह दामाद को दिये।
दामाद लड्डू लेकर घर से चला।
दामाद ने सोचा कि इतना वजन कौन लेकर जाये क्यों न
यहीं मिठाई की दुकान पर बेच दिये जायें।
और दामाद ने वह लड्डुयों का पैकेट मिठाई वाले को बेच
दिया और पैसे जेब में डालकर चला गया।
उधर सेठ जी बाहर से आये तो उन्होंने सोचा घर के लिये
मिठाई की दुकान से मोतीचूर के लड्डू लेता चलू और सेठ जी
ने दुकानदार से लड्डू मांगे मिठाई वाले ने वही लड्डू का
पैकेट सेठ जी को वापिस बेच दिया जो उनके दामाद को
उसकी सास ने दिया थे।
सेठ जी लड्डू लेकर घर आये सेठानी ने जब लड्डूओ
का वही पैकेट देखा तो सेठानी ने लड्डू फोडकर देखे
अर्शफिया देख कर अपना माथा पीट लिया।
सेठानी ने सेठ जी को दामाद के आने से लेकर जाने तक और
लड्डुओं में अर्शफिया छिपाने की बात सेठ जी से कह
डाली।
सेठ जी बोले कि भाग्यवान मैंनें पहले ही समझाया था कि
अभी उनका भाग्य नहीं जागा।
देखा मोहरें ना तो दामाद के भाग्य में थी और न ही
मिठाई वाले के भाग्य में।
इसलिये कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा और समय से पहले न
किसी को कुछ मिला है और न मिलेगा।
दोस्तों इस पोस्ट को जरूर शेयर करे ....
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मुझे भी कभी अपने इस शरीर पर बहुत गुमान होता था ।

एक व्यक्ति जिसका सारा शरीर कोढ़ ग्रस्त था ,सड़क
किनारे बैठ कर भीख मांग कर पेट भरता था ।
एक दिन एक युवक उसके पास रुका और पुछा ," भाई , मैं तुम्हे
कई दिनों से देख रहा हूँ , शायद कई बरसों से , तुम्हे
ज़िन्दगी जीना कैसा लगता है ?
तुम्हे कैसा महसूस होता है जब कोई तुम्हारे पास आता नही
और लोग दूर ही रहते हैं तुमसे ?
"कोढ़ग्रस्त व्यक्ति ने उत्तर दिया " मैं भी कई बार यही
सोचता हूँ , पर जीवन जीना मेरे बस की बात नही है ।
मुझे लगता है कि प्रभु चाहता है कि लोग मुझे देखें , चाहे
नफरत से ही सही , ताकि उन्हें भी महसूस हो कि मैं भी
कभी उन्ही की तरह होता था । और वे भी कभी मेरी तरह
ही हो सकते हैं ।"
उसने आगे कहा , " मुझे भी कभी अपने इस शरीर पर बहुत
गुमान होता था । "
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हरिवंशराय बच्चन ने अपनी कविताओ में कुछ बहुत ही सूंदर लाइनें लिखी थी.

हारना तब आवश्यक हो जाता है
जब लड़ाई "अपनों" से हो !
और
जीतना तब आवश्यक हो जाता है
जब लड़ाई "अपने आप " से हो ! !


मंजिले मिले , ये तो मुकद्दर की बात है
हम कोशिश ही न करे ये तो गलत बात है



कीसी ने बर्फ से पुछा की,
आप इतने ठंडे क्युं हो ?
बर्फ ने बडा अच्छा जवाब दिया :-
" मेरा अतीत भी पानी;
मेरा भविष्य भी पानी..."
फिर गरमी किस बात पे रखु ??

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दिल को छु लेने वाली ये कहानी जरुर पढे.....

बाहर बारिश हो रही थी और अन्दर क्लास चल रही थी ,
तभी टीचर ने बच्चों से पूछा कि अगर तुम सभी को 100-100
रुपये दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे ?
किसी ने कहा कि मैं वीडियो गेम खरीदुंगा,
किसी ने कहा मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा ,
किसी ने कहा कि मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया
खरीदुंगी,
तो किसी ने कहा मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी |
एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था, टीचर ने उससे पुछा
कि तुम क्या सोच रहे हो ? तुम क्या खरीदोगे ?
बच्चा बोला कि टीचर जी, मेरी माँ को थोड़ा कम
दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा
खरीदूंगा ‌।
टीचर ने पूछाः तुम्हारी माँ के लिए चश्मा तो तुम्हारे
पापा भी खरीद सकते है, तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं
खरीदना ?
बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया
|
बच्चे ने कहा कि मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है | मेरी
माँ लोगों के कपड़े सिलकर मुझे पढ़ाती है और कम दिखाई
देने की वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है
इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ ताकि मैं
अच्छे से पढ़ सकूँ, बड़ा आदमी बन सकूँ और माँ को सारे सुख दे
सकूँ.
दो शब्द इस बच्चे के लिए जरुर लिखे.....
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परमात्मा की पहली प्रतीति चिंतन से मिलती है

परमात्मा की पहली प्रतीति चिंतन से मिलती है,
पहला आभास। लेकिन अनुभव नहीं, सिर्फ आभास। सिर्फ इस
बात की झलक कि वह है। इस झलक पर ही जो रुक जाएगा, वह
भी परमात्मा को नहीं पहुंच पाया। उसने भी अनुभव
नहीं किया। यह झलक जरूरी है, पर काफी नहीं है। चिंतन के
बाद, मन में बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ
परमात्मा।
यह जो पहली झलक मिले, फिर इसको ध्यान में रूपातरित
करना है। यह जो पहली झलक अहा, यह सदा स्मरण रहने लगे,
यह ध्यान बन जाए; इसे भूला ही न जा सके।
उठते—बैठते, सोते—जागते वह झलक सम्हालकर रखनी है भीतर।
जैसे मा अपने बच्चे को गर्भ में सम्हालकर रखती है।
चलती भी है ते। सम्हलकर, काम भी करती है तो सम्हलकर।
एक स्मरण बना ही रहता है कि वह गर्भवती है। एक
छोटा जीवन अंकुरित हो रहा है, उसे कोई चोट न पहुंच जाए।
ठीक जिसे झलक मिल गई, उस झलक को वह अपने भीतर
सम्हालकर चलता है।
कबीर ने कहा है, जैसे गांव की वधुएं नदी से पानी भरकर सिर
पर मटकियां रखकर गांव की तरफ लौटती हैं, तब वे गपशप
भी करती हैं, बातचीत भी करती हैं, हंसती भी हैं, राह से
चलती भी हैं, पर उनका ध्यान सदा गगरी में लगा रहता है; वह
गिरती नहीं। सब चलता रहता है—चलना, बात करना, हंसना,
गीत गाना—लेकिन ध्यान गगरी में लगा रहता है। कोई भीतर
की स्मृति ग्यारी को सम्हाले रखती है। इसको कबीर ने
सुरति कहा है, नानक ने भी सुरति कहा है।
सुरति बुद्ध के वचन स्मृति का बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्धं ने
कहा था—माइंडफुलनेस, स्मृति; होश बना रहे निरंतर एक तत्व
का। सब कुछ भूल जाए वह न भूले। उसी को कबीर, नानक, दादू
ने सुरति कहा है। सुरति बनी रहे, जगी रहे। ओशो
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परमात्मा की पहली प्रतीति चिंतन से मिलती है

परमात्मा की पहली प्रतीति चिंतन से मिलती है,
पहला आभास। लेकिन अनुभव नहीं, सिर्फ आभास। सिर्फ इस
बात की झलक कि वह है। इस झलक पर ही जो रुक जाएगा, वह
भी परमात्मा को नहीं पहुंच पाया। उसने भी अनुभव
नहीं किया। यह झलक जरूरी है, पर काफी नहीं है। चिंतन के
बाद, मन में बारंबार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ
परमात्मा।
यह जो पहली झलक मिले, फिर इसको ध्यान में रूपातरित
करना है। यह जो पहली झलक अहा, यह सदा स्मरण रहने लगे,
यह ध्यान बन जाए; इसे भूला ही न जा सके।
उठते—बैठते, सोते—जागते वह झलक सम्हालकर रखनी है भीतर।
जैसे मा अपने बच्चे को गर्भ में सम्हालकर रखती है।
चलती भी है ते। सम्हलकर, काम भी करती है तो सम्हलकर।
एक स्मरण बना ही रहता है कि वह गर्भवती है। एक
छोटा जीवन अंकुरित हो रहा है, उसे कोई चोट न पहुंच जाए।
ठीक जिसे झलक मिल गई, उस झलक को वह अपने भीतर
सम्हालकर चलता है।
कबीर ने कहा है, जैसे गांव की वधुएं नदी से पानी भरकर सिर
पर मटकियां रखकर गांव की तरफ लौटती हैं, तब वे गपशप
भी करती हैं, बातचीत भी करती हैं, हंसती भी हैं, राह से
चलती भी हैं, पर उनका ध्यान सदा गगरी में लगा रहता है; वह
गिरती नहीं। सब चलता रहता है—चलना, बात करना, हंसना,
गीत गाना—लेकिन ध्यान गगरी में लगा रहता है। कोई भीतर
की स्मृति ग्यारी को सम्हाले रखती है। इसको कबीर ने
सुरति कहा है, नानक ने भी सुरति कहा है।
सुरति बुद्ध के वचन स्मृति का बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्धं ने
कहा था—माइंडफुलनेस, स्मृति; होश बना रहे निरंतर एक तत्व
का। सब कुछ भूल जाए वह न भूले। उसी को कबीर, नानक, दादू
ने सुरति कहा है। सुरति बनी रहे, जगी रहे। ओशो
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