अपने ही हाथों से घर अपना जला लेते हैं लोग॥
कैसी फितरत है और कैसी सियासत इनकी,
दिल मिले या न मिले हाथ मिला लेते हैं लोग॥
लूट कर कितनें ही मासूम, मुफ़लिसों का हक़,
ऐशों-आराम के समान जुटा लेते हैं लोग।
चंद सिक्कों के लिए क्या क्या नहीं करते हैं,
गीता क़ुरान की कसमें भी उठा लेते हैं लोग।
भले ही औरों के दामन पे उछालें कीचड़,
बड़ी आसानी से अपने को बचा लेते हैं लोग।
दिखाते रहते हैं हर वक़्त दूसरों की कमी,
गलतियाँ अपनी सरे-आम छुपा लेते हैं लोग।
अपने अशकों पे ये "सूरज" ज़रा काबू रखना,
यहाँ इन्सानों के जज़्बात भुना लेते हैं लोग।
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