कहीं भी उसे कोई सार न मिला। तब उसके
आखिरी गुरु ने कहा कि तू अब जनक के पास चला जा। पर उस
खोजी ने कहा कि मैं बड़े—बड़े संतो के पास गया, ज्ञानियों के पास
गया, वहा मुझे कुछ न मिला; तो इस भोगी सम्राट के पास मुझे
क्या मिलेगा! फिर भी गुरु ने कहा, तू जा। जब संतो के पास तुझे
कुछ नहीं मिला, तो अब जरा भोगी के पास
भी जाकर खोजने की कोशिश कर, शायद।
जब वह पहुंचा तो देखा कि जनक, संध्या का समय है और अपने मित्रों के
साथ बैठे गपशप कर रहे हैं। शराब ढाली जा रही है।
आसपास सुंदर युवतियां नाच रही हैं। संगीत चल
रहा है।
वह खोजी तो बड़ा दुखी हुआ कि मैं किस गलत जगह
आ गया। वह जाने को हुआ। जनक ने कहा, रुको।
इतनी जल्दी मत करो।
खोजी को थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। आ
ही गया था और अब वापस लौटना, जंगल में, रात मुश्किल
भी था। तो सोचा, रात रुक ही जाऊं, सुबह उठकर
चला जाऊंगा। अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं है।
इससे क्या मिलने को है! यह आदमी खुद अज्ञान में डूबा हुआ
है, यह मुझे क्या जगाएगा? सांझ भोजन के बाद सम्राट उसे उसके कमरे में
छोड़ गया और कहा कि आप ठीक से विश्राम करें।
बड़ा सुंदर कमरा था, सजा हुआ था, विशेष अतिथियों के लिए बनाया गया था।
बहुमूल्य गद्दिया थीं। बड़ा सुखद वातावरण था। सुगंधित था। वह
खोजी सोया। लेकिन जैसे ही बिस्तर पर
लेटा कि घबड़ाहट हो गई। ऊपर ठीक छत से,
जो काफी ऊंची थी, एक
नंगी तलवार लटक रही थी और एक
पतले धागे से बंधी! उसने कहा कि यह भी कग
स्वागत की कोई व्यवस्था है! यह आदमी मुझे
मारना चाहता है? यह तलवार कभी भी गिर
सकती है। एक कच्चा—सा धागा बंधा है। जरा—सा हवा का झोंका.।
तो वह रात—बहुत उसने सोने की कोशिश की, लेकिन
सो न सका। करवट बदले, फिर आंख खोलकर देखे कि तलवार
अभी लटकी है! फिर करवट बदले, फिर उठकर बैठ
जाए, फिर देखे—तलवार अभी लटकी है!
सुबह सम्राट आया। उसने पूछा कि रात ठीक से तो सो सके? उसने
कहा, खाक। यह कोई सोने की व्यवस्था है? यह कोई आतिथ्य
है? यह तलवार ऊपर लटकी है पतले धागे से,
इसकी स्मृति पीछा करती रही।
नींद असंभव थी।
सम्राट ने कहा, ऐसी ही पतले धागे से
लटकी तलवार मेरे ऊपर भी है। तुम्हें
नहीं दिखाई पड़ती, मुझे दिखाई पड़ती है।
वह मौत की तलवार है। और चाहे मैं नाच में बैठा रहूं और चाहे
शराब ढलती हो वहां बैठा रहूं चाहे संगीत
बजता हो वहां बैठा रहूं उस तलवार
की स्मृति मिटती ही नहीं,
वह लटकी है। तुम रातभर नहीं सो सके, मैं
भी जिंदगीभर से सोया नहीं हूं।
सोना असंभव ही हो गया। जब से यह स्मृति आई है मृत्यु
की, तब से सोना असंभव हो गया।
कोई एक चीज भीतर धुन की तरह
बजती रहे, उसका नाम ध्यान है। कोई एक चीज
भीतर चलती ही रहे। झलक मिल जाए
चिंतन से कि परमात्मा है; ऐसी प्रतीति आ जाए—
अस्तित्व है; नकार नहीं, एक स्वीकार का भाव आ
जाए फिर इस भाव को भीतर जो सम्हालता चलता है, उस
सम्हालने का नाम ध्यान है।
बारंबार मन से चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ परमात्मा निर्मल और निश्चल
हृदय से और विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है।
ध्यान से जो निरंतर परमात्मा को अपने भीतर गर्भ
की भांति सम्हालता रहेगा, उसकी सुरति को सम्हाले
रखेगा, वैसा व्यक्ति निर्मल और निश्चल हृदय से और विशुद्ध बुद्धि से
परमात्मा को देखने में सफल हो जाता है।
यह जो ध्यान है, इसके परिणाम हैं। अगर कोई व्यक्ति परमात्मा के स्मरण
को निरंतर सम्हाले रहे, या और किसी स्मरण को..।
जरूरी नहीं है, स्मरण जरूरी है।
सुरति जरूरी है। किसकी—यह बात, सवाल
नहीं है बड़ा।
एक आदमी चौबीस घंटे श्वास
को ही खयाल रखे। श्वास भीतर आई, बाहर गई।
भीतर आई, बाहर गई। बुद्ध ने इसे बड़ा मूल्य दिया है। श्वास
को कोई देखता रहे, उसे उन्होंने अनापानसती योग कहा है,
आती—जाती श्वास की स्मृति का योग।
भीतर गई, बाहर गई। श्वास भीतर आई, बाहर गई।
इसे कोई स्मरण रखे।
वे कहते हैं, परमात्मा को न भी स्मरण किया तो कोई हर्ज
नहीं। स्मृति आ जाए बस, इसके भीतर आते—जाते
होश जगता जाएगा। इस होश के दो परिणाम होंगे। इस होश के जगते
ही जीवन में जो विकार पकड़ते हैं, वासनाएं
पकड़ती हैं, वे पकड़ना बंद हो जाएंगी।
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