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पथ-प्रदर्शक


हजरत मुहम्मद के एक अनुयायी बीमार पड़े और सूखकर कांटा हो गये। वे उसकी बीमारी का हाल पूछने के लिए गये। अनुयायी हजरत के दर्शनों से ऐसे संभले कि मानो खुदा ने उसी समय नया जीवन दे दिया हो। कहने लगे, "इस बीमारी ने मेरा भाग ऐसा चमकाया कि दिन निकलते ही यह बादशाह मेरे घर आया। यह बीमारी और बुखार कैसा भाग्यवान है! यह पीड़ा और अनिद्रा कैसी शुभ है!"

हजरत पैगम्बर ने उस बीमार से काह, "तूने कोई अनुचित प्रार्थना की हैं। तूने भूल में विष खा लिया है। याद कर, तूने क्या हुआ की?"

बीमार ने कहा, "मुझे याद नहीं। परन्तु मैं यह अवश्य चाहता हूं कि आपकी कृपा से वह दुआ याद आ जाये।"

आखिर हजरत मुहम्मद की कृपा से वह दुआ उसको याद आ गयी।


उसने का, "लीजिए, वह दुआ मुझे याद आ गयी। आप सदैव अपराधियों को पाप करने से मना करते थे और पापों के दंड का डर दिलाते थे। इससे मैं व्याकुल हो जाता था। न मुझे अपनी दशा पर संतोष था और न बचने की राह दिखायी देती थी। न प्रायश्चित की आश थी, न लड़ने की गुंजाइश और न भगवान् को छोड़ कोई सहायक दिखायी देता था। मेरे हृदय में ऐसा भ्रम पैदा हो गया था कि मैं बार-बार यही प्रार्थना करता था कि हे ईश्वर, मेरे कर्मों का दण्ड मुझे इसी संसार में दे डाल, जिससे मैं संतोष के साथ मृत्यु का आलिंगन कर सकूं। मैं इसी प्रार्थना पर अड़कर बैठ जाता था। धीरे-धीरे बीमारी ऐसी बढ़ी कि घुल-घुलकर मरने लगा। अब तो यह हालत हो गयी है कि खुदा की याद का भी खयाल नहीं रहता और अपने-पराये का ध्यान भी जाता रहा। यदि मैं आपके दर्शन न करता तो प्राण अवश्य निकल जाते। आपने बड़ी कृपा की।"

मुहम्मद साहब ने काह, "खबरदार, ऐसी प्रार्थना फिर न करना! ऐ बीमार चींटी, तेरी यह सामर्थ्य कहां कि खुदा तुझपर इतना बड़ा पहाड़ रक्खे?"

अनुयायी ने कहा, "तोबा! तोबा! ऐ सुलतान! अब मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि कोई प्रार्थना बेसोच-समझे नहीं करूंगा। ऐ पथ-प्रदर्शक! इस निर्जन बन में आप ही मुझे मार्ग दिखाइए और अपनी दया से मुझे शिक्षा दीजिए।"

हजरत रसूल ने बीमार से कहा, "तू खुदा से दुआ कर कि वह तेरी कठिनाइयों को आसान करे। ऐ खुदा! तू लोग और परलोक में हमें धैर्य और सुख प्रदान कर। जब हमारा निर्दिष्ट स्थान तू ही है तो रास्ते की मंजिल को भी सुखमय बना दे।"


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