उसने पूछा, "तुम अभी तो मुझप वार करना चाहते थे और अब तुरन्त ही तलवार फेंककर मुझे छोड़ दिया। इसका क्या कारण है! तुमने ऐसी क्या बात देखी कि मुझपर अधिकार प्राप्त करने के बाद भी मुकाबले से हट गये।"
हजरत अली ने कहा, "मैं केवल खुदा के लिए तलवार चलाता हूं, क्योंकि मैं खुदा का गुलाम हूं। अपनी इन्द्रियों का दास नहीं। मैं खुद का शेर हूं दुर्वासनाओं का शेर नहीं। मेरे आचरण धर्म के साक्षी हैं। सन्तोष की तलवार ने मेरे क्रोध को भस्म कर दिया है। ईश्वर का कोप भी मेरे ऊपर दया की वर्षा करता है।
फिर हजरत अली ने पहलवान से कहा, "ऐ जवान! जबकि युद्ध के समय तूने मेरे मुंह पर थूका तो उसी समय मेरे विचार बदल गये। उस वक्त युद्ध का उद्देश्य आधा खुदा के वास्ते और आधा तेरे जुल्म करने का बदला लेने के लिए हो गया, हालांकि खुदा के काम में दूसरे के उद्देश्य को सम्मिलित करना उतिच नहीं है। तू मेरे मालिक की
बनायी हुई मूरत है और तू उसीकी चीज है। खुद की बनायी हुई चीज को सिर्फ उसीके हुक्म से तोड़ना चाहिए।"
इस काफिर पहलवान ने जब यह उपदेश सुना तो उसे ज्ञान हो गया। कहा, "हाय! अफसोस, मैं अबतक जुल्म के बीज बो रहा था। मैं तो तुझे कुद और समझता था। लेकिन तू तो खुदा का अन्दाज लगाने की न सिर्फ तराजू है, बल्कि उस तराजू की डंडी है। मैं उस ईश्वरीय ज्योति का दास हूं, जिससे तेरा जीवन-दीप प्रकाशित हो रहा है। इसलिए मुझे अपने मजहब का कलमा सिखा, क्योंकि तेरा पद मुझसे बहुत ऊंचा है।"
इस पहलवान के जितने निकट संबंधी और सजातीय थे, सबने उसी वक्त हजरत अली का धर्म ग्रहण कर लिया। हजरत अली ने केवल दया की तलवार से इतने बड़े दल को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया।
[दया की तलवार सममुच लोहे की तलवार से श्रेष्ठ है।] १






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