कई बार व्यक्ति स्वयं की त्रुटियाँ नहीं निकला पाता। ऎसे में उसे ऐसे व्यक्ति की सहायता लेनी चाहिए जो वास्तविक त्रुटियाँ निकाल सके।
एक बार एक शिल्पकार था। वह जब भी कोई मूर्ति बनाता तो स्वयं ही उसकी कमियाँ ढूंढता और फिर वैसी ही दूसरी मूर्ति बनाता जिसमें वह कमियाँ नहीं होती। वह पहली मूर्ति को नष्ट कर देता और दूसरी मूर्ति को ही बाजार में बेचता था। एक बार उसने अत्यंत सुंदर मूर्ति बनाई। जब उसने देखा कि इस मूर्ति में कोई कमी नहीं है, तो वह आश्चर्यचकित हुआ। उसने खूब सूक्ष्मता से उस मूर्ति का अवलोकन किया और पाया कि इस मूर्ति में कोई कमी नही है तो वह रोने लगा। उसके रोने की आवाज़ उसके पड़ोस में रहने वाले दूसरे शिल्पकार ने सुनी।वह उसके पास आया और उसके रोने का कारण पूछा। शिल्पकार ने कहा कि मुझे इस मूर्तिे में कोई कमी नहीं दिख रही है। पड़ोसी ने पूछा जब कोई कमी नही है तो फिर रो क्यों रहे हो? शिल्पकार ने कहा जब तक मुझे अपने कमियाँ नहीं दिखती, तब तक मैं अपनी कला को सुधार नहीं सकता। आज मुझे कोई त्रुटि दिख नहीं रही, इसलिए मुझे रोना आ रहा है। यदि तुम मेरी इस मूर्ति में कोई गलती निकाल दो तो मैं तुम्हारा बहुत आभारी रहूँगा। पड़ोसी ने ध्यान से मूर्ति को देखा और मूर्ति की नाक, कमर व पैरोँ की उंगलियों में कुछ त्रुटियाँ निकाली। अपनी मूर्ति की त्रुटियाँ जानकर शिल्पकार बहुत प्रसन्न हुआ और समझ गया कि कई बार हम स्वयं अपनी त्रुटियाँ नहीं जान पाते हैँ जबकि दूसरे व्यक्ति उसको देख लेते हैं। इसीलिए स्वयं की त्रुटियाँ निकालकर सुधारने के साथ -साथ दूसरों से भी अपनी त्रुटियाँ जानकर सुधारी जाएँ तो व्यक्ति बहुत प्रगति कर सकता है।
अपनी गलतियों को देखने और उन्हें सुधारने से ही व्यक्ति प्रगति के पथ पर बढ़ सकता है। लेकिन कई बार व्यक्ति अपनी त्रुटियाँ नहीं निकाल पाता है। ऐसी स्थिति में उसे अपनी गलतियाँ निकालने के लिए ऐसे व्यक्ति की सहायता लेनी चाहिए जो वास्तविक रुप से उसकी त्रुटियाँ निकाल सके और उसे उन्हें सुधारने का दिशानिर्देश दे सके।
अपनी गलतियों को देखने और उन्हें सुधारने से ही व्यक्ति प्रगति के पथ पर बढ़ सकता है। लेकिन कई बार व्यक्ति अपनी त्रुटियाँ नहीं निकाल पाता है। ऐसी स्थिति में उसे अपनी गलतियाँ निकालने के लिए ऐसे व्यक्ति की सहायता लेनी चाहिए जो वास्तविक रुप से उसकी त्रुटियाँ निकाल सके और उसे उन्हें सुधारने का दिशानिर्देश दे सके।
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