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उस बेचारे को अब व्यर्थ ही और तकलीफ देनी उचित नहीं है!

एक कारागृह में फांसी की सजा हुए किसी बंदी का आगमन हुआ था! शीघ्र ही उसकी
प्रभु-भक्ति से सारा बंदीगृह गूंज- उठा था! भोर के पूर्व ही उसकी पूजा और
प्रार्थना प्रारंभ हो जाती थी! प्रभु के प्रति उसका प्रेम असीम था!
प्रार्थना के साथ ही साथ उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहती रहती
थी! प्रभु-प्रेम से उपजे विरह की हार्दिकता तो उसके गीतों के शब्द- शब्द
में थी! वह भगवान का भक्त था और बंदीजन उसके भक्त हो गए थे! कारागृह-
अधिपति और अन्य अधिकारी भी उसका समादर करने लगे थे! उसके प्रभु-स्मरण का
क्रम तो करीब-करीब अहर्निश ही चलता था! उठते-बैठते-चलते भी उसके ओंठ राम
का नाम लेते रहते थे! हाथ में माला के गुरिए घूमते रहते थे! उसकी चादर पर
भी राम ही राम लिखा हुआ था! कारागृह-अधिपति जब भी निरिक्षण को आते थे, तभी
उसे साधना में लीन पाते थे! लेकिन एक दिन जब वे आए तो उन्होंने पाया कि
काफी दिन चढ़ आया है और वह बंदी निशचिंत सोया हुआ है! उसकी राम- नाम की
चादर और माला भी उपेक्षित-सी एक कोने में पड़ी है!

अधिपति ने सोचा शायद स्वास्थ्य ठीक नहीं है! किंतु अन्य बंदियों से पूछने
पर ज्ञात हुआ कि स्वास्थ्य तो ठीक है, लेकिन प्रभु-स्मरण कल संध्या से ही
न मालूम क्यों बंद है! अधिपति ने कैदी को उठाया और पूछा: "देर हुई,
ब्रह्ममुहूर्त निकल गया है! क्या आज भोर की पूजा प्रार्थना नहीं करनी है?"


वह बंदी बोला: "पूजा-प्रार्थना? अब कैसी पूजा और कैसी प्रार्थना? घर से कल
ही पत्र मिला है कि फांसी की सजा सात वर्ष के कारावास में परिणत हो गई है!
भगवान से जो काम कराना चाहता था, वह पूरा हो गया है! उस बेचारे को अब
व्यर्थ ही और तकलीफ देनी उचित नहीं है!"

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